महाकुंभ : मूर्त-अमूर्त शौर्य और अमृत कलश कथा

मंहत देव्या गिरि,मनकामेश्वर महादेव मठ,लखनऊ
ब्रम्हा ने प्रयागराज के गंगा और यमुना संगम पर स्थित दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ करके ब्रम्हांड का निर्माण किया था। इसीलिए सभी कुंभों में प्रयागराज कुंभ को विशेष स्थान प्राप्त है। महाकुंभ को दुनिया का सबसे बड़ा तीर्थ-पर्व माना जाता है। जहां पर किसी को आमंत्रण देने की आवश्यकता नहीं होती है, करोड़ों लोग स्वतः महाकुंभ में डूबकी लगाकर पुण्य का भागीदार बन जाते हैं और मनुष्यता की सीख लेते हैं। यूनेस्कों ने 2017 में महाकुंभ को दुनिया का अमूर्त सांस्कृतिक विरासत में शामिल किया है और संरक्षित किया है। महाकुंभ का सामाजिक संदेश प्रगाढ है, अनुकरणीय भी है। सभी मनुष्यों के कल्याण, सदविचार, मानवता को मजबूत करने का अर्मूत संदेश है। मंत्रों का जाप, धर्मग्रंथों का पवित्र व्याख्याएं, भक्ति संगीत, पौराणिक कहानियों और पारंमपिक नृत्य लोगों को जोडते हैं, छोटे-बडे़ का भेदभाव को समाप्त करते हैं। संतों और वैरागियों का निस्वार्थ जीवन और परमपिता परमेश्वर के प्रति समर्पण प्रेरणा बनते हैं।

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महाकुंभ का उद्भव और विकास तथा महिमा भगवान श्रीविष्णु से जुड़ा हुआ है। असूर शक्तियों की अराजक और हिंसक कहानी भी इसके पीछे हैं। कभी असूर शक्तियों ने अपनी शक्ति और साम्राज्य शक्तिशाली कर ली थी और मानवता का संहार कर रहीं थी, अधर्म का राज स्थापित कर लिया था और अराजकता चारों तरफ पसर गया था। सृष्टि का औचित्य और सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया था। जब-जब मनुष्यता की हानि होती है, संहार होता है, अराजकता पसरती है तब-तब सत्यनिष्ठा और सदाचार स्थापित करने के लिए परमपिता परमेश्वर खुद परिस्थितियां पैदा करते हैं, खुद उपस्थित होकर प्रेरणा बनते हैं। क्या आपने भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण का उदाहरण को आत्मसात कर सकते हैं, देख सकते हैं। जब रावण ने अति कर दी थी, सृष्टि के औचित्य और सार्थकता को ही पराजित कर दिया था तब भगवान श्रीराम को धरती पर अवतरित होना पड़ा था। भगवान राम के धनुष ने रावण का संहार कर मनुष्यता स्थापित की थी। इसी तरह भगवान श्रीकृष्ण क्रूर, हिंसक व आतातयी कौरवों का संहार कर मानवता का संदेश दिया था।

भगवान श्रीविष्णु ने मानवता, राजकता और सृष्ठि की अहर्ता को अक्षुण रखने के लिए असुर शक्तियों यानी राक्षसों को पराजित करने के लिए की लीला रची थी। दुर्वासा श्रृषि ने एक बार देवताओं को शाप दे दिया था। इस शाप के कारण देतवाओं की शक्ति बहुत क्षीर्ण हो गयी थी। जब शक्ति क्षीर्ण होगी तब वर्चस्व भी समाप्त हो जाता है, प्रभाव भी कम हो जाता है। राक्षसों के देवता शुक्राचार्य ने इस दौरान देवताओं के राज को समाप्त करने और देवताओं के अस्तित्व संहार करने की सोची थी। पूरी राक्षसी प्रवृति उनके शरण में थी। इस कारण राक्षसों का तांडव था, राक्षसों के तांडव से पूरी पृथ्वी थर-थर कापंने लगी थी और मनुष्यता खतरे में पड गयी थी।

अमनुष्यता की प्रबृति की शक्तिशाली होने के कारण देवताओं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था। देवताओं को जब राक्षसों की हिंसक प्रवृति को रोकने का कोई उपाय नहीं दिखा तो वे सभी भागे-भागे भगवान श्रीविष्णु के पास पहुंचे। भगवान श्रीविष्णु से मदद मांगी। भगवान कोई चमत्कार तो करते नहीं है, वे कर्म करने के लिए कहते है, कर्म का रास्ता दिखाते हैं, जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म अर्थात वीरता की सीख दी थी। उसी प्रकार से भगवान श्रीविष्णु ने देवताओं से कहा था कि राक्षसी प्रवृति और राक्षसी हिंसा का संहार तभी होगा जब आप में अजर-अमर की शक्ति होगी। अजर-अमर की शक्ति के लिए आपको समुद्र मंथन करना होगा, समुद मंथन से अमृत निकलेगा और उस अमृतपान से आपकी शक्ति बढ़ेगी और राक्षसों का संहार होगा।

भगवान श्रीविष्णु के निर्देश और सुझाव को मानने के अलावा देवताओं के सामने और कोई विकल्प भी नहीं था। समुद्र मंथन देवताओं की बस की बात तो थी नहीं। क्योकि श्रृषि दुर्वासा के श्राप के कारण देवताओं की शक्ति क्षीर्ण हो गयी थी। देवताओं ने इसके लिए एक रास्ता निकाला। राक्षसों से संधि कर ली थी और समुद्र मंथन साथ-साथ करने की नीति बनायी थी। अमृतपान के लालच में राक्षस भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गये। फिर देवताओं और राक्षसों की मिली जुली शक्ति समुद्र मंथन के लिए जुट गयी। समुद्र मंथन आसान नहीं था।

समुद्र मंथन के लिए अपार शक्ति की जरूरत थी और एकाग्रता भी जरूरी थी। कोई एक-दो घंटा नहीं बल्कि पूरे 12 दिन तक समुद्र मंथन हुआ। फिर भी अमृत निकला नहीं। फिर देवताओं ने भगवान श्रीविष्णु का स्मरण किया, खुद भगवान श्रीविष्णु समुद्र के पाताल में बैठ कर अपनी लीला देख रहे थे। फिर भगवान श्रीविष्णु की कृपा से समुद्र मंथन के 12 वें दिन अमृत निकला। अमृत जैसे ही निकला वैसे ही भगवान इंद्र के पुत्र जयंत अमृत को कलश में एकत्र कर उड़ गये। वास्तव में अमृतपान से राक्षसों को वंचित करना था। क्योंकि इसमें ब्रम्हांड कल्याण का लक्ष्य और सुरक्षा निहित था। अगर राक्षसों ने अमृतपान कर लिया होता तो फिर ब्रम्हांड में अस्थिरता होती, हिंसा होती और कालनेमियों का साम्राज्य होता। इसीलिए भगवान श्रीविष्णु ने खुद यह लीला रची थी।

राक्षसों के गुरू शुकराचार्य ने भगवान विष्णु की लीला को समझ लिया और राक्षसों को जयंत के पीछे दौड़ा दिया, काफी प्रयास के बाद राक्षसों ने जयंत को पीछा कर पकड़ लिया। अमृत कलश पर अधिकार को लेकर राक्षसों और देवताओं मे भयानक युद्ध हुआ, यह युद्ध कई दिनों तक चला। देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध के दौरान अमृत कलश से कुछ बूंदे पृथ्वी पर गिरी थी। पृथ्वी के चार जगहों पर अमृत कलश से कुछ बूदें गिरी थीं। प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में नदियों के बीच अमृत कलश की बूदें गिरी थीं। इसलिए भी गंगा सहित अन्य नदियां जीवनदायनी और मोक्षदायनी भी हुई और जिनकी महानता मनुष्यता के लिए जीवंत बन गयीं।

अब यहां यह प्रश्न उठता है कि 12 साल के बीच महाकुंभ का आयोजन क्यों होता है? इसके पीछे तर्क और अहर्ताएं क्या हैं? देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक साल के बराबर होता है। चूंकि समुद्र मंथन में बारह दिन लगे थे फिर अमृत कलश मिला था। इसीलिए 12 साल के बाद महाकुंभ का आयोजन होता है। अमृतपान देवताओं ने किया था। जबकि सिर्फ अमृतपान ही नहीं बल्कि जहर भी समुद्र मंथन से निकला था। समुद्र मंथन से निकला हुआ विष अगर पृथ्वी पर गिरता तो फिर अनर्थ हो जाता और सृष्टि ही चपेट में आ जाती, जैसे परमाणु बम के प्रकोप से पीढ़ियां तबाह होती है, उसका असर वर्षाें तक रहता है, मानवता का संहार करता है, इसी तरह अगर समुद्र मंथन से निकला हुआ विष पृथ्वी पर गिरता तो उसके असर से भगवान की श्रृष्टि ही नष्ट होती, संहार होता, मानवता कराहती। भगवान श्रीविष्णु सृष्टि को बचाने के लिए भगवान शंकर को याद किया था। भगवान शंकर में ही जहर-विषपान की शक्ति थी और विषपान को पचाने और उसके असर को प्रभावहीन करने की शक्ति थी। भगवान विष्णु के निवेदन पर भगवान शंकर ने विषपान कर सृष्टि को बचाया था।

महाकुंभ की तिथियां कैसे निर्धारित होती है और महाकुंभ के दौरान हमारी अहर्ताएं क्या-क्या होनी चाहिए? महाकुंभ की तिथियां निर्धारित करने के लिए ग्रहों की स्थितियां कसौटी पर होती है। सूर्य और बृहस्पति राशि की स्थिति का ध्यान रखना पड़ता है। सूर्य और वृहस्पति राशि दूसरी राशियों में प्रवेश करते हैं तब महाकुंभ की तिथियां निर्धारित होती हैं। जब वृहस्पति वृर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य, मकर राशि में प्रवेश करते हैं तब महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज में होता है। जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब महाकुंभ का आयोजन हरिद्वार में होता है। लेकिन सूर्य और वृहस्पति एक साथ सिंह राशि में प्रवेश करते है तब यह कुंभ नासिक में आयोजित होता है। जब सूर्य मेष राशि और वृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते हैं तब महाकुंभ का आयोजन उज्जैन में होता है। अमृतकलश की सुरक्षा में ग्रहों की भूमिका महत्पपूर्ण थी। जब राक्षसों और देवताओं के बीच अमृतकलश की छीनने-झपटने का युद्ध चल रहा था तब तब सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया था, चन्द्रमा ने अमृत को बहने या उछल कर नीचे गिरने से बचाया था।
महाकुंभ प्रयागराज में आयोजित होता है। यह 12 साल के बाद आयोजित होता है। ऐसे कुंभ के अन्य प्रकार भी है जिनके नाम पूर्ण कुंभ मेला, अर्ध कुंभ मेला, कुंभ भेला माघ कुंभ मेला है।

संयोग नहीं, सौभाग्य कहिए। देश और प्रदेश में भाजपा की सरकार है, सनातन मान्यता की सरकार है। मोदी जी और योगी जी सनातन की समृद्धि हैं, आन, बान और शान हैं। इन्होंने महाकुंभ की भव्यता की कई प्रेरक संस्कृतियां स्थापित की है। खासकर योगी जी महाकुंभ क्षेत्र को अलग जनपद यानी कि जिला घोषित कर दिया है। प्रयागराज के जिस क्षेत्र में महाकुंभ का आयोजन हो रहा है वह क्षेत्र अब अलग जिला बन गया है और इसका नाम है महाकुंभ क्षेत्र जिला। अलग जिला घोषित कर देने मात्र से महाकुंभ के दौरान आने वाली अनेक समस्याओं का समाधान हो जायेगा। केन्द्रीय सरकार और प्रदेश सरकार द्वारा महाकुंभ के प्रचार-प्रसार तेजी के साथ हुआ है, प्रचार और प्रसार में सक्रियता भी दिखती है, सत्यनिष्ठा भी दिखती है और समर्पण भी दिखता है। आज दुनिया भर में महाकुंभ को लेकर जिज्ञासाओं का समुद्र बन गया है, हर कोई जानना चाहता है कि महाकुंभ की संस्कृति और पुण्य कितना महान है, प्ररेरणादायी है और मुक्ति प्रदत्त है।

महाकुंभ के दौरान मां गंगा में डूबकी लगाने मात्र से पापों का नाश होता, जीवन में सत्यनिष्ठा को लेकर प्रेरणा मिलती है, सत्यकर्म के प्रति आशा जागती है, बुरे कर्माें से मुक्ति की धारणा बनती है, स्वच्छता और वसुधैव कुटुम्बकम के प्रति प्रोत्साहन मिलता है।
महाकुंभ हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी एक जीवंत कड़ी है। महाकुंभ ही क्यों बल्कि सनातन का हर पर्व और त्योहार अर्थव्यवस्था की समृद्धि से जुड़े हुए हैं, रोजगार से जुड़े हुए हैं। महाकुंभ के दौरान विदेशों से लाखों भक्त, जिज्ञासु और श्रद्धालु आयेंगे, मां गंगा में डुबकी लगायेंगे। इनके आने मात्र से हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूति मिलेगी, डॉलर की कमाई होगी, एयर लाइसों, होटलों, वाहनों और अन्य रोजगार के माध्यमों की समृद्धि भी बढ़ेगी, इनसे जुड़े हुए लोगों को रोजगार भी मिलेगा। ये महाकुंभ आयेंगे तो फिर इन्हें भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या, भगवान शंकर की नगरी काशी, मां वैष्णव देवी और केदारनाथ आदि के प्रति जिज्ञासा होगी जिन्हें शांत करने के लिए इन जगहों पर भ्रमण करेंगे, दर्शन करेंगे और अपनी सुखद व समृद्ध याद लेकर स्वदेश लौटेगे, इसी के साथ पूरी दुनिया में भी सनातन का डंका बजेगा।

कुछ चेतावनियां भी याद करने की जरूरत है। हमारे देश में सनातन क्रे प्रति जहर मानिसकता वाले कम नहीं है, सनातन में भी कालनेमियों की कमी नहीं है, भस्मासुरों की कमी नहीं है। हमारे सामने सिर्फ आयातित हिंसक और रक्तपिशाचु संस्कृति की ही चुनौती नहीं है बल्कि हमारे सामने अपने भीतर के कालनेमियों और भस्मासुरों की चुनौती भी जहरीली है। कालनेमी और भस्मासुर कुसंस्कृति के लोग महाकुंभ की महानता और स्वच्छता के प्रति असष्णिुता प्रदर्शित कर सकते हैं, विपरीत चरित्र का प्रदर्शन कर सकते हैं, अप्रिय आचरण दिखा सकते हैं, चोरी-जेबकतरी और श्रद्धालुओं को लूटने या फिर उनसे बेतहाशा सेवा शुल्क वसूलने का धंधा कर सकते हैं। इस पर ध्यान देने की जरूरत होगी। सौभाग्य से हमारे प्रदेश की योगी जी की सरकार सनातन के कालनेमियों, भस्मासुरों और श्रद्धालुओं से लूटने वालों को गंभीर दंड देने के लिए तत्पर है और रहेगी, ऐसी अपेक्षा है।

लेख में उदृत विचार व शोध लेखक के अपने हैं। संपादक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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